सांस्कृतिक इतिहास : पहचान की धुरी

 किसी ताकतवर देश की बुनियाद क्या हो सकती है ?

क्या वह अपनी पहचान बिना ऐतिहासिक जड़ों के बना सकती है? अगर किसी ने उसका इतिहास उससे छीन लिया हो तब क्या होगा ?

बाजारवाद और वैश्वीकरण के इस युग में किसी देश की महागाथा का क्या महत्व है ?


छोटे दिखने वाले इन सवालों को समझने के लिए मैं आपको एक ऐसे खबर से रूबरू करवाना चाहूंगा जिसके निहितार्थ गहरे हैं .....


भारत 2023 में जी 20  सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहा है ।

भारत के समक्ष वैश्विक मुद्दों पर एक साझी समझ विकसित करने की भारी चुनौती है । ये मुद्दे हर तरह से ज्वलंत और चुनौतीपूर्ण है , जैसे कि रूस और यूक्रेन के मध्य सैन्य संघर्ष और आपस में उपजी कूटनीतिक जटिलताओं में संतुलन साधना , चीन के साथ आपसी समझ बढ़ाना , तेल के व्यापार , अनाज की आपूर्ति , आर्थिक मंदी, वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी अपरिहार्य चुनौतियों के लिए साझे पहल को विकसित करना इत्यादि ।

इनमें  से किसी भी एक समस्या को छोटा करके नहीं दिखाया जा सकता । भारत के राष्ट्रीय हितों और विश्व कल्याण के लिए इनका शांतिपूर्ण समाधान निकालना ही होगा ।

किंतु भारत की अपनी चुनौतियां कुछ अलग हैं !!

और यह एक ऐसे देश के लिए जिसको आजाद हुए 75 वर्षों से अधिक हो गए हो , जो अपने आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा हो ,  चकित करने वाली बात है !!!

मामला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से जुड़ा हुआ है ।

 

 

एएसआइ द्वारा जी 20 देशों के समक्ष भारत के समृद्ध इतिहास को साक्ष्य के साथ प्रस्तुत करने की पहल की जा रही है और इसके लिए ए एस आइ द्वारा पुराना किला क्षेत्र (दिल्ली) में मॉनसून के दौरान भी खुदाई करने का संकल्प लिया गया है ।

अखबारी श्रोतों की माने तो ए एस आइ द्वारा कुंती मंदिर की खुदाई स्थल पर अस्थाई टीन शेड लगाकर खुदाई को चालू रखने की बात की गई है ।

योजना के तहत खुदाई में मिले पुरातात्विक साक्ष्य को धरोहर के रूप में जी 20 के प्रतिनिधियों के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा । तत्पश्चात आम जनता के बीच इसका प्रदर्शन होगा ।

ए एस आइ का कहना है कि जिस स्थल पर खुदाई हुई है वहां नौ सांस्कृतिक काल के प्रमाण मिले हैं ।दिल्ली का यह एकमात्र स्थल है जिसका संबंध महाभारत काल से है ।

अबतक के विवरण में प्रथम दृष्टया कुछ भी अप्रत्याशित नहीं दिखता।

किंतु यदि इसको एक संदर्भ प्रदान किया जाए , तो परिदृश्य में व्यापक बदलाव 

आ जाता है :

1. जी 20 सम्मेलन के शुरू होने के बाद ए एस आइ द्वारा तदर्थ रूप में

 खुदाई और पुरातात्विक सामग्री प्राप्त करने का प्रयास *आग लगने पर

 कुंआ खोदने* जैसा है । जो देश 1947 में ही आजाद हो गया हो ,

 वह आज तक अपना इतिहास क्यों नहीं सहेज पाया ?

 क्या भारत में ऐसे बुद्धिजीवियों की कमी है जो इतिहास के महत्व को नहीं 

समझते ?

ऐसे कौन से कारक थे जिन्होंने अभी तक महाभारत काल से जुड़ी खुदाइयों को वैसा महत्व देने से रोका जिसका यह हकदार था ?

आखिर क्यों भारत और दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी महागाथा और उससे जुड़े ऐतिहासिक अन्वेषण की अबतक उपेक्षा होती रही ?

देखा जाए तो ऐतिहासिक प्रमाण के साथ महाभारत को उजागर करने के प्रयास बी बी लाल , मीनाक्षी जैन जैसी चुनिंदा इतिहासकारों द्वारा ही किया गया है । किंतु इससे भी दुखद पहलू ये है कि इनके शोध को मुख्य धारा के इतिहास लेखन में शामिल होने से संस्थागत रूप से रोका जाता रहा है और एक विशिष्ट शैली के इतिहास लेखन को ही अधिक तरजीह दी जाती रही है ।

हालांकि सत्य का अमरत्व उसके पुनरुद्धार को सुनिश्चित कर देता है । हमारे देश के इतिहास के साथ भी ऐसा ही है । तमाम संस्थागत अवरोधों के बावजूद भारत के इतिहास का सच सतह पर यदा कदा प्रकट हो ही जाता है !!

कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के सिनौली में हुआ ।

2000 ईसा पूर्व के रथ , योद्धा महिला के कंकाल , शील्ड और हत्थे वाली तलवार , ये सभी चीख चीख कर भारत के समृद्ध इतिहास को उजागर कर रहे हैं । 





सिनौली की खोज एक इत्तेफाक रही , न कि किसी योजनाबद्ध अन्वेषण का हिस्सा । किंतु यहां से मिले रथ मिश्र और मेसोपोटामिया के रथ से कहीं ज्यादा उन्नत हैं। रथ की बनावट इसे युद्ध में इस्तेमाल के योग्य सिद्ध करती है ।

सबसे अधिक आश्चर्य ये है कि रथ की बनावट का विवरण जस का तस महाभारत में वर्णित रथ के विवरण से मेल खाता है । 

सिनौली की खोज ने भारतीय इतिहास लेखन की वर्तमान परिपाटी को गंभीर चुनौती दे दी है ।

कुछ स्थापित मान्यताओं पर नजर डालते हैं:


A) हड़प्पा सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी जिसके पतन के बाद भारत

 में ग्रामीण संस्कृति ही शेष रही और द्वितीय नगरीकरण 600 बीसी में

 ही देखने को मिलता है ।

हड़प्पा सभ्यता ताम्र पाषाण संस्कृति के मध्य उपजी अकेली शहरी सभ्यता मानी जाती है ।

किंतु सिनौली के रथ, हथियार,   महिला  योद्धा ये सभी एक विकसित शहरी या कम से कम गैर कृषि आर्थिक  और राजनीतिक व्यवस्था की ओर संकेत करते हैं ।

B) हड़प्पा के पतन में आर्यों के हमले की भूमिका और इसके आधार

 पर विकसित मूल_निवासी बनाम बाहर वाले , दलित बनाम सवर्ण ,

 द्रविड़ बनाम आर्य जैसी विभाजनकारी संकल्पनाएं भारत के इतिहास

 लेखन में प्रमुख रही हैं ।

इन अवधारणाओं ने भारत की साझी पहचान के विकास को अवरूद्ध कर दिया है ।

सिनौली के रथ  और उसमें तेज दौड़ने वाले पशु के प्रयोग की निश्चित संभावना इस मत के खंडन का आधार तैयार करती है कि #आर्य घोड़े पर सवार होकर मध्य एशिया से  1500 बीसी में आए और सभी मूल निवासियों पर हावी हो गए ।

हालांकि जैसा हमेशा होता आया है , इस तरह के महत्वपूर्ण खोज से निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचने की यात्रा उपेक्षाओं के कारण दीर्घकालिक सिद्ध होगी ।

इसी तरह #द्वारका से संबंधित अन्वेषण सरकारी उपेक्षा का शिकार हो गया है ।यह शहर भी अपने भीतर छिपे इतिहास के  कारण समय समय पर हमारे राष्ट्रीय स्मृति पटल पर दस्तक देता रहता है ।

C) आर्यों की पहली खेप ऋग्वैदिक काल से जुड़ी थी और जब ये भारत

 आए तब उत्तर भारत का दोआब क्षेत्र पहली बार पशुपालकों से आबाद

 हुआ । इसकी अवधि 1500 बीसी से 1000 बीसी बताई जाती है ।

किंतु सिनौली जिस काल खंड की ओर ईशारा करती है उसके 2000बीसी में एक समृद्ध शहरी संस्कृति होने की प्रबल संभावना है ।


 D) महाभारत की कालावधि 900 बीसी निर्धारित की

 जाती रही है ।


किंतु सिनौली के पुरातात्विक साक्ष्य इस अवधि को और भी पीछे ले जाते हैं । 


अब हम एक दूसरे प्रश्न पर विचार करेंगे .....


2.  जिस महाभारत की कहानी को ए एस आइ

 एक ठोस ऐतिहासिकऔर पुरातात्विक आधार देने का प्रयास कर रही

 है 

उसको घोषित रूप में मिथक माना जाता रहा है ।


चाहे वो रोमिला थापर हो , आर एस शर्मा हो या फिर दूसरा कोई भी मार्क्सवादी इतिहासकार , सभी ने पूरे विश्वास के साथ समूचे राष्ट्र को यही बताया है कि महाभारत एक मिथक है , इतिहास नहीं।

आजादी के बाद जो भी इतिहास लेखन हुआ , उसमें बिना किसी अपवाद के हर शैक्षणिक संस्थान में बांटने वाली इतिहास की किताबों में यही विचार तथ्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

आजाद भारत की कम से कम तीन पीढ़ियों ने यही इतिहास आत्मसात किया है ।

अब सवाल ये है कि क्या ए एस आइ इस स्थापित मत को बदलने का प्रयास कर रही है ?

क्या ए एस आइ को भारत के इतिहास का यूरेका मिल गया है ?

और इससे भी बड़ा सवाल ये है कि यदि आज ए एस आइ सही रास्ते पर  है और सत्य की ओर जा रही है , तो फिर इतने सालों तक इसे किसने गुमराह किया ?

इतिहास को लेकर इस तरह की लापरवाही देश के

 समक्ष पहचान का संकट पैदा कर देती है । 

भारत इसी संकट से जूझ रहा है ।

द्रविड़ बनाम आर्य , दलित बनाम सवर्ण , हिंदू बनाम मुस्लिम, उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत , मुख्य

 भारत बनाम पूर्वोत्तर भारत जैसी न जाने कितनी पहचानें आपस में टकराने लगी हैं ।

साझे पहचान का ये संकट भारत के विकृत इतिहास लेखन से उपजा है ।

यदि भारत स्वयं को सशक्त देखना चाहता है तो इसे स्वयं के सच्चे इतिहास को आत्मसात  करना होगा ।

इसको अपने इतिहास को किसी भी तरह के विदेशी दृष्टिकोण से मुक्त करना होगा ।

 भारत का नागरिक होने के नाते यह हर भारतीय का अधिकार है कि उसको उसके वास्तविक इतिहास से परिचित करवाया जाए ।उसके पहचान का आधार किसी खास उद्देश्य से लिखा संशोधित इतिहास न हो ।

मैं अपने पाठकों से जानना चाहूंगा कि उनको क्या लगता है : 


स्वयं के पहचान का आधार कैसा इतिहास हो , संशोधित या यथार्थ ?





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